रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

लहू है कि तब भी गाता है...!

राजेश चन्द्र
गुरुशरण सिंह एक ऐसे योद्धा रंगकर्मी का नाम था जिन्होंने रंगमंच की तीन पीढि़यों को यह अहसास कराया कि जब देश के गांवों, मुहल्लों, चैराहों और सड़कों पर सामंती शोषण, पूंजीवादी लूट, दमन और साम्राज्यवादी साजिशों के बीच घिरे हुए आम आदमी का सरेआम खून बहाया जा रहा हो, तब कला और कलाकार का काम कुछ मुट्ठीभर संभ्रांत लोगों के दिलबहलाव का इंतजाम करना नहीं हो सकता। ऐसा करना उस मेहनतकश जनता के साथ केवल एक फरेब होगा जिसने अपना खून-पसीना बहा कर दुनिया की तमाम कलाओं एवं संस्कृतियों की सर्जना की है। एक ऐसे वक्त में कलाकार का वास्तविक दायित्व यही हो सकता है कि वह देश में आमूलचूल बदलाव के लिए चल रहे जनसंघर्षों के साथ एकजुटता कायम करे और अपने माध्यम का उपयोग प्रतिरोध की उस वैकल्पिक संस्कृृति को पुष्ट और समृद्ध बनाने में करे जिसमें मानव द्वारा मानव के शोषण के लिए कोई जगह न हो। शहीद भगत सिंह की प्रेरणा और उनकी विरासत को अपने नाटकों में जीवंत करने वाले और रंगमंच को एक जनवादी आंदोलन का व्यापक परिप्रेक्ष्य देने वाले समर्पित और संपूर्ण रंगकर्मी गुरुशरण सिंह ने विगत 28 सितंबर को 82 वर्ष की अवस्था में अपने शरीर को त्याग दिया। इसके साथ ही वे जनता के रंगमंच पर एक ऐसा विराट खालीपन छोड़ गए जिसकी भरपाई शायद ही कभी मुमकिन हो सके।
गुरुशरण सिंह ने रंगमंच को समझने और उसे प्रस्तुत करने की एक नई दृष्टि दी। उन्होंने एक नाटककार और निर्देशक के तौर पर हमेशा आम आदमी को अपना नायक माना। वे विगत कई दशकों से एक बदलाव के रंगमंच को आगे बढ़ा रहे थे ताकि आम आदमी के मुद्दों को प्राथमिकता मिले और उनके जीवन को मूल्यसंपन्न बनाया जा सके। गुरुशरण सिंह विशिष्टवर्गीय रंगमंच से लगातार दूर होते गए क्योंकि उन्होंने अनुभव किया कि उसके पास कहने-करने को कुछ भी नहीं है। रंगकर्मियों, अभिनेताओं एवं निर्देशकों की एक समूची पीढ़ी को प्रभावित और प्रोत्साहित करते हुए गुरुशरण सिंह ने 80 के दशक में चंडीगढ़ नाट्य विद्यालय की स्थापना की तथा उसका मार्गदर्शन भी किया।

1956 में अपनी रंगयात्रा की शुरुआत करने से पहले गुरुशरण सिंह ने रसायन शास्त्र में एमएससी किया था और वे सरकार के सिंचाई विभाग में रिसर्च आॅफीसर के पद पर नियुक्त थे। इस पद पर रहते हुए उन्होंने भाखड़ा नांगल तथा अन्य कई परियोजनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पंजाब की पांच नदियों में से एक सतलज पर बांध बनाने के दौरान उन्होंने देखा था कि अगर इच्छाशक्ति हो तो नदी की धारा को मोड़ना असंभव नहीं है। यही से उनके दिमाग में यह बात आई कि जब एक नदी को अनुकूल दिशा में मोड़ा जा सकता है तो समाज को क्यों नहीं बदला जा सकता? इस सोच ने उनके अपने जीवन की दिशा तो बदल ही दी और वे रंगकर्म की ओर मुड़ गए। समसामयिक घटनाओं के संदर्भ लेकर उन्होंने अपने नाटक बनाए और बगैर किसी आडंबर या तामझाम के उन नाटकों को खेतों, खलिहानों, गलियों, मुहल्लों और चैराहों पर सीधे आम लोगों के बीच पहुंचा दिया। वे मानते थे कि जिस देश की सत्तर फीसदी आबादी आज भी पेट भर रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, पानी, बिजली और रोजगार से वंचित है उस देश का रंगमंच साधनसंपन्न नहीं हो सकता। वे कहते थे कि यह वक्त बंद प्रेक्षागृहों में अंधेरे की ओट से गोल-मोल बातें करने का नहीं बल्कि लोगों के बीच जाकर उनके दुख-तकलीफों में शामिल होने और उनसे सीधे संवाद करने का है। उन्होंने ऐसा करके दिखाया भी और असंख्य लोगों को उत्पीड़नकारी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की प्रेरणा दी। उन्होंने न केवल बेजुबानों की बेबसी का प्रभावशाली नाट्यरूप गढ़ा बल्कि समाज के उन असंख्य उत्पीडि़त निस्सहाय जनों के नीरव हाहाकार को स्वर भी दिया जिन्हें सदियों से कुछ भी बोलने या विरोध करने की इजाजत नहीं थी।

अपनी पांच दशक लंबी रंगयात्रा में गुरुशरण सिंह ने रंगमंच को जिस नए प्रयोगधर्मी स्वरूप में प्रस्तुत किया, उसे ‘ग्रामीण रंगमंच‘ की संज्ञा मिली। आपातकाल के दौरान जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नागरिक अधिकारों को बेरहमी से कुचलना शुरू किया तो गुरुशरण सिंह इस अत्याचार के खिलाफ मुखर हुए और उन्हें अपनी नौकरी गंवानी पड़ी। ‘नौजवानों को सरकार के खिलाफ बगावत के लिए उकसाने‘ का आरोप लगा कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। चार्जशीट देख कर मजिस्ट्रेट हंस पड़े और उन्होंने पुलिस अधिकारियों से कहा-‘‘इससे तो अच्छा होता कि आप इन पर नाटक के प्रदर्शन से जुड़ा कोई आरोप लगा देते।‘‘ 80 के दशक में जब पुलिस ने एक बार फिर उन्हें गिरफ्तार किया तो उन्होंने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और एक पूर्णकालिक रंगकर्मी बन गए। इस समय तक वे काफी चर्चित हो चुके थे थे और पंजाब की शोषित-उत्पीडि़त जनता उन्हें अपना सच्चा हमदर्द मानने लगी थी।

पंजाब जिन दिनों आतंकवाद की आग में झुलस रहा था तब भी गुरुशरण सिंह अपनी यात्रा से विचलित नहीं हुए। लकीर के फकीर आलोचकों ने उनके नाटकों पर फतवे जारी किए और उन्हें ‘कलाविहीन नारे‘ ठहराने की पुरजोर कोशिश की पर जनता ने इन दलीलों को कूडे़ में डाल दिया। गुरुशरण ने अपना काम जारी रखा और उन्होंने बर्तोल्त बे्रख्त के अलावा सैमुएल बैकेट के कई कालजयी नाटकों को भी सफलतापूर्वक मंचित करके दिखा दिया। ‘जंगीराम की हवेली‘ और ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ जैसे उनके नुक्कड़ नाटकों को देश भर के रंगकर्मियों ने अपनाया और कोने-कोने तक पहुंचा दिया।

केवल 16 वर्ष की उम्र में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने वाले गुरुशरण सिंह जीवन भर अपने उसूलों पर कायम रहे। उन्होंने जन संस्कृति मंच के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उसके संस्थापक अध्यक्ष भी चुने गए। 1993 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उनके नाटकों की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनको देखते हुए दर्शकों की आंखें भर आती थीं और उनके अंदर का सदियों पुराना भय छंटने लगता था। उन्होंने देश भर के युवाओं में परिवर्तन की एक नई उम्मीद जगाई। भारत के संस्कृतिकर्म का इतिहास लिखने की जब भी कोई कोशिश की जाएगी तो उपेक्षित जनता के इस बहादुर रंगकर्मी को युगप्रवत्र्तक जैसा महत्व देना होगा। अपने जीवन और संस्कृतिकर्म में जनवादी, खुशहाल और आजाद भारत के जिस ख्वाब को लेकर गुरुशरण सिंह जूझते रहे थे, वह ख्वाब आज भी अधूरा है और निश्चित रूप से इसे पूरा करने का संकल्प लेकर नौजवान सामने आते रहेंगे।

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