रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

मंगलवार, 6 मार्च 2018

अभिनेता की डायरी : भाग आठ

एक सच्चे कलाकार की कोई जाति नहीं होती और ना ही उसका कोई धर्म होता है, जैसे कला जाति-धर्म से परे होती है। रंगमंच का एक कलाकार समूह में कार्य करता है और उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके साथ काम करनेवाले लोग किस जाति, धर्म या समुदाय के हैं। इसप्रकार वो अनजाने में ही दुनियां की सबसे बड़ी बेवकूफ़ी अर्थात जाति, धर्म और रंगभेद से बच जाता है, कम से कम तब तो बचता ही है जब वो अपने कलाकारी में तल्लीन हो। आज का अभ्यास भी कुछ ऐसा ही एहसास लिए था। अभिनेताओं ने जो डायरी बनाई वो निम्न है -
#अभिनव कश्यप- आज हमलोगो ने एक सेल्फ डेपेन्डेड कलाकार की तरह सर के आने के पहले ही अभ्यास शुरू कर दिया । फिर सर ने हमें एक ऐसा अभ्यास करने को कहा जो मैं पहली बार किया और बहुत ही ज्यादा असरदार भी था । उस में था कि हम तेज़ तेज़ चलते रहें और जैसे ही सर ताली बजाएं हमारे सामने जो भी हो उससे भागकर गले लग जाएं । इस अभ्यास से यह अनुभव हुआ कि हमलोग कितना एक दूसरे को स्वीकार करते है और कितना समझते है । अगर ग्रूप में एकता, समझदारी और एकदूसरे को सम्मान भाव नहीं रहा तो टीम वर्क सफल नहीं होगा ।
हमने यह भी जाना की समाज मे जो भी जाति, धर्म हो, कलाकार की कोई जाति, धर्म नहीं होता। उसकी कला ही उसकी जाति है और कलाकारी ही उसका धर्म है।
#संदेश कुमार- आज हमलोगों ने कुछ अलग तरह के खेल खेला और अपने दोस्तों को गले लगाकर अपनापन महसूस हुआ। हम कलाकारों का एक ही काम है ओ अभिनय करना है। अपने अभिनय से समाज की नज़रिया को बदलना। क्योकि एक कलाकार समाज का दर्पण होता है     
 #राकेश कुमार - मुझे जीव जन्तुओं की एक बात बहुत अच्छी लगती है। वो है एक दूसरे को छूना, चूमना, गले लगाना। अपने भावनाओं को एहसास कराना। अगर दुश्मनी भी है तो एक दूसरे को छू कर अपनी गलती, माफी या फिर सुलह का रास्ता अपना लेना। लेकिन हम इंसान एक दूसरे से हाथ भी मिलाते है तो लगता हैं एक दूसरे पर एहसान कर रहे हैं। भईया आज हमलोगों को एक दूसरे को गले लगाने के अर्थ को समझायें कि कैसे हम अपने भावनाओं, इच्छाओं, एहसासो को एक दूसरे को छू कर महसूस कर सकते हैं। मुझे तो आज ये बाते सीखने को मिली। हां मैं एकाध से गले नही लगना चाहता था शायद मेरे मन में समाज के कुछ नियम कायदों को लेकर  झिझक थी या फिर कुछ और।
#राहुल सिन्हा- संकुचित मानसिकता यह एक ऐसी बीमारी है जो हमारे समाज में वायरस की भांति फैला हुआ है। पता नहीं क्यों,  कुछ लोग एक स्तर पर जाने के बाद अपने मानसिकता को सीमित कर लेते हैं। उनका सही/ग़लत का एक मानक हो जाता है कि यह सही है, यह ग़लत है वगैरह वगैरह। उदाहरण के तौर पर , एक लड़का का एक लड़की से गला मिलना ले लीजिए। ग़ौर से देखने पर पता चलेगा कि दोनों में से कोई भी इंसान गला मिलते वक़्त सहज नहीं है। वे दोनों के लिए इसका कारण एक दूसरे को न स्वीकारना हो सकता है। जबकि गला मिलने का तात्पर्य साफ़ होता है कि वे दोनों आपस में अपनी भावनाओं को आदान-प्रदान करें। एक दूसरे को महसूस करें। इसीलिए एक अच्छा कलाकार को चाहिए कि वह हमारे समाज में बनी इस झूठी अवधारणाओं के बंधन से मुक्त रहे।
#एदीप राज- आज मैंने एक नया खेल खेला जो पहले कभी नहीं खेला था। अपने दोस्त को गले लगाना और उसको महसूस करना। जब मैंने दोस्त को गले लगाया तब मुझे पोजिटिव शक्ति मिली और कुछ अलग सा महसूस किया जो मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर पा रहा हुँ।
#सुशांत- हमारी मानसिकता इतनी खराब हो चुकी है कि अच्छे चीजों का भी हम गलत मतलब निकालते है। जैसे जब दो लोग एक दूसरे के गले मिलते है या जब एक लड़का और एक लड़की एक दूसरे के गले लग रहे होते है तो वे एक दूसरे को अपनी भावना बता रहे होते है और हम उसे गलत समझ बैठते है। और भी ऐसी न जाने कितने चीज़ें होंगी जिन्हें हम गलत समझते है पर वो वाकई में गलत  होता नहीं है। एक कलाकार को चाहिए कि बिना तर्क के किसी भी बात हो सही या गलत न माने।
#प्रशांत कुमार- सर ने बताया कि एक अभिनेता की कोई जाति या धर्म नही होता और उन्हें इन सब मामलों से दूर ही रहना चाहिए।
#अरुण कुमार- हमारा समाज कई जातीय,धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं में बंधा हुआ है। कुछ मान्यताएँ अच्छी हैं,तो कुछ बहुत बुरी। कुछ हमें इंसानियत का पाठ पढ़ाती है,तो कुछ मानवीयता से दूर ले जाती है। और एक कहावत है ना कि शुरुआत में बुराई, अच्छाई से ज़्यादा प्रभावशाली लगती है।उसके रास्ते इतने आसान होतें हैं कि हम उसी को अच्छा मान कर आगे बढ़ते चले जाते हैं, और जब तक सही चीजों का एहसास होता है, काफी देर हो चुकी होती है। फिर हमलोग उसी ग़लती को सही मान बैठते हैं। यही ग़लती धीरे धीरे सामाजिक कुरीतियों में परिवर्तित हो जाती है ,जो समाज को बांटने का काम करती है और यही कारण है कि हम इन्सान एक दूसरे से दूर होते चले जातें हैं,स्त्री और पुरुष में विभेद करने लगते है। हमारे अंदर समानता की भावना ख़त्म हो जाती है। हम एक दूसरे को नीचता का बोध कराने के फ़िराक़ में लगे रहते हैं।यहाँ तक कि एक दूसरे के वजूद को ही नकारने लगते हैं। कहीं न कहीं वर्तमान में यही स्थिति हमारे समाज में वयाप्त है।
खुद को एक अच्छा इंसान और कलाकार साबित करने के लिए हमें इन कुरीतियों से ऊपर उठना होगा। हमें अपने बीच समानता का भाव स्थापित करना होगा। ऐसा करके ही हम एक बेहतर समाज की कल्पना कर सकते हैं।
#अनुज- एक कलाकार को बनावटी दुनिया से परे होकर सोचना चाहिए , क्योकि ये दुनिया हर जगह को अपने सुविधा अनुसार कुछ न कुछ नियम कानून बना रखी है । एक कलाकार को कम से कम इस दिखावे की दुनिया से तो बचना चाहिए, हमें बचपन से सिखाया जाता है कि वह लड़की है तुम्हे उससे ज़्यादा बात नही करनी चाहिए। उसके साथ तुम्हे नही घूमना चाहिए और पता नही क्या क्या ।
आज का अभ्यास भी इसी तरह के बने धारणा को , जो हमारे मन में बनी है, उसे तोड़ने के लिए था। अक्सर हम अपने आप को अच्छा और दूसरो को खराब या नीच मानते है , इसलिए हम किसी  को स्वीकार नही करते , किसी से बात करने से पहले सोचते है, आज के अभ्यास सत्र में हमे ये जानने का मौका मिला कि हम यदि किसी को पूर्ण रूप से स्वीकार करते हैं तो हमे उसे जानने का मौका मिलता है ।
#संत रंजन- एक कलाकार की मानसिकता क्या होनी चाहिए ? आज के क्लास में सर ने यही बताया । उन्होंने इसके बारे में बताते हुए कहा कि हमलोग बचपन से ही सामजिक प्रतिबंधों से घिरे आ रहे हैं । इसके चक्कर में समाज इतना स्वार्थी हो गया है कि कोई किसी की सूध लेने वाला तक नहीं है , एक दूसरे के भावनाओं को समझना तो दूर की बात है ।
 खैर कलाकार इन सब सामाजिक मान्यताओं से परे होता है । उसे अच्छी चीज़ों के साथ - साथ बुरी चीज़ों से भी बराबर का ही लगाव होता है । क्यूंकि उसे तो हर उस चीज़ को अपने कला के माध्यम से सामाज को आइना दिखाना है, जिससे समाज में सकारात्मक बदलाव आ सके ।
#सोनू- आज के अभ्यास में मैंने जो किया, कभी भी नहीं किया था | क्योंकि समाज का नज़रिया इतना गंदा है कि वो नहीं चाहते हैं कि लड़की और लड़का दोनों से एक जैसा वार्तालाप किया जाए |  एक लड़की, एक लड़का से हाथ नहीं मिला सकतें ।
और गला मिलना तो दुर की बात है | खैर जो भी हो, कलाकारों को तो ऐसा ना कभी करना चाहिए और ना ही सोचना चाहिए |
#आकाश-  रंगकर्मी का ना कोई धर्म होता है नाही कोई जात। तभी तो यह समाज हम से डरती है। समाज हम सभी को एक अजीब से जाल मेँ बाँध कर रखा है जिसे अँग्रेज़ी मे "code of conduct" कहते है। हिन्दी भाषा मे इसे आचार संहिता या मर्यादा भी कहते है। हम सब इसी के जाल मे फंसे हुए है और अपने जीवन को जकड़ के रखे हुए है। एक अनुदारवादी कलाकर इस जाल मे ना फंस कर के खुद के जीवन शैली को सुखद और सौन्दर्य बनाता है। जैसे की अगर कोई मनुष्य हरा रँग का वस्र पहनता है तो उसकी पहचान मुस्लिम धर्म से माना जाता है और अगर कोई व्यक्ति केसरिया रंग का पहनता है तो उसकी पहचान हिन्दू धर्म से की जाती है। रंगकर्मी को सदैव कला क्षेत्र में उसकी गहराई मे जाना या सोचना चाहिये। मूल्य कला या अभिनय गहराई मे ही जाकर मिलती है।               
 #देवांश ओझा - जब कोई भी काम एक लय में होता है, करने में मज़ा आता है। और जो काम करवा रहे हैं वह भी प्रसन्न रहते है।

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